साबरमती के बहाने
सफ़र नामा ............
मुझे अहमदाबाद जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ| अमूनन अहमदाबाद में देखने लायक बहुतसे ऐतिहासिक तथा धार्मिक स्थान है | परन्तु मैंने यात्रा की शुरुवात में हि तय कर लिया था कि मै साबरमती आश्रममें पर्याप्त समय रहूँगा।साबरमती आश्रम में बिताया गया एक एक पल का अनुभव मेरे लिए एक अलौकिक स्पंदन था|
. यद्यपि मेरी गाँधीजी के राजनीतिक विचारों से कभी भी पूर्ण सहमति नही रही,या यों कह सकते हैं कि मुझे राजनेता गाँधी कभी भी बहुत अधिक प्रभावित नहीं कर पाये।परंतु उनकी अध्यात्मिक चेतना एवं नैतिक अनुशासन ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया है।
गाँधी भारतीय जनमानस की नब्ज़ को अच्छी तरह पहचानते थे। . वे जानते थे की धर्म के प्रयोग के द्वारा हि समाज को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा जा सकता है। वे यह भी जानते थे कि भारतीय जनता कठोर नैतिक अनुशासन से पूरित व्यक्ति का ही नेत्रत्व सहज रूपसे तथा श्रद्धा के साथ स्वीकार करती है।
यह साबरमती आश्रम ही था, जहाँ गाँधी जी को स्वतंत्रता आंदोलन के नेत्रत्व की तैयारी का एवं आंदोलन को समाज से जोड़ने के पूर्वाभ्यास का अवसर प्राप्त हुआ। संभवतया साबरमती नदी के किनारे गाँधीजी ने स्वयं के द्वारा अनवरत किए गये अध्यात्मिक प्रयोगों द्वारा स्वयं को उस उँचाई तक पहुँचाया होगा जहाँ ईश्वरीय तत्व को महसूस किया जा सकता है। दूसरी ओर कठोर नैतिक बंधनो तथा स्वानुशासन के द्वारा शरीर और मन को साधने के गंभीर प्रयास किए | यहीं से गाँधी की जन नेता से अधिक एक महात्मा बनने की प्रक्रीया प्रारंभ हुई ।
उनके तापोनिश्ठ जीवन की आँच को साबरमती आश्रम मे सहज महसूस किया जा सकता है। .साबरमती आश्रम मे ऊन्मुक्त उड़ान भरते तोते,घास पर दौड़ती \ दाना चुगती चिड़ियों ,वृक्ष पर निशंक होकर चढ़ती उतरती गिलहरियो से ही संभवतया स्वतंत्रता का पहला स्वाभाविक अनुभव महात्मा गांधी ने महसूस किया होगा। साधक की तरह खड़े हरे भरे व्रक्ष गाँधीजी के अध्यात्मिक अनुभवो के साक्छी रहें हैं। ये वृक्छ आज भी वैसे ही खड़े हैं ।उसी साक्ष भाव के साथ। गाँधी की यादगार चरखे, छड़ी ,घड़ी और उनके निवास को देखकर गांधी के संतत्व को सहज रूप से महसूस किया जा सकता है। यह साबरमती नदी का अविरल प्रवाह गाँधी के पूर्वाग्रहों से मुक्त नैतिकता कि ऊंचाइयों कि पहुँच को बार बार दोहराता हैं।
लो मैं भी गाँधी को एक कहानी बना बैठा. गाँधी कहानी नही वरण हमेशा प्रासंगिक बना रहने वाला एक शाश्वत व्यक्तित्व है| गाँधी अपने आत्मिक बल के कारण जहाँ खड़े होते वह स्थान व्यासपीठ बन जाता, जो बोलते वह नैतिक उपदेश बन जाता।
उनका ओढना,पहनना, उठना, बैठना पुरे देश के लिए अनुकरणीय बन गय़ा। उनकी इसी विशेषता के कारण स्वतंत्रता के राजनीतिक आंदोलन को भी वे ग़ैरपेशेवर और उस समय प्रचलित राजनीतिक तरीकों से अलग ढंग से चला पाए। गाँधी एक ऐसे शक्तिपुंज बन गये थे,जो कई बार कॉंग्रेस पार्टी और आंदोलन के प्रजातांत्रिक ढाँचे के विरोध में भी खड़े दिखाई देते थे । .
क्या पार्टी कि राजनीति के बाहर एक शक्तिपूंज का बनना पार्टी के प्रजातंत्र के लिए ख़तरा भी हो सकता है? हम प्रजातांत्रिक देशो का इतिहास देखे , प्रजातंत्र कभी धनबल,कभी सत्ता ,तो कभी नौकरशाहो के हाथ का तो कभी वोट बैंक के हाथो का खिलोना बन जाता है। . आज हमारे प्रजातंत्र की भी क्या हालत है ? दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र का मुखिया अपनी मजबूरी को खुलेआम स्वीकार करता है । ऐसे समय सत्ता या पार्टी के समानांतर शक्तिपूंज का होना अनिवार्य है । ,परन्तु ऐसा शक्ति पुंज आध्यात्मिक और नैतिक ताक़त से पूर्ण हो.। ठीक गाँधी की तरह । गाँधी आज भी प्रासंगिक है.।
सफ़र नामा ............
मुझे अहमदाबाद जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ| अमूनन अहमदाबाद में देखने लायक बहुतसे ऐतिहासिक तथा धार्मिक स्थान है | परन्तु मैंने यात्रा की शुरुवात में हि तय कर लिया था कि मै साबरमती आश्रममें पर्याप्त समय रहूँगा।साबरमती आश्रम में बिताया गया एक एक पल का अनुभव मेरे लिए एक अलौकिक स्पंदन था|
. यद्यपि मेरी गाँधीजी के राजनीतिक विचारों से कभी भी पूर्ण सहमति नही रही,या यों कह सकते हैं कि मुझे राजनेता गाँधी कभी भी बहुत अधिक प्रभावित नहीं कर पाये।परंतु उनकी अध्यात्मिक चेतना एवं नैतिक अनुशासन ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया है।
गाँधी भारतीय जनमानस की नब्ज़ को अच्छी तरह पहचानते थे। . वे जानते थे की धर्म के प्रयोग के द्वारा हि समाज को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा जा सकता है। वे यह भी जानते थे कि भारतीय जनता कठोर नैतिक अनुशासन से पूरित व्यक्ति का ही नेत्रत्व सहज रूपसे तथा श्रद्धा के साथ स्वीकार करती है।
यह साबरमती आश्रम ही था, जहाँ गाँधी जी को स्वतंत्रता आंदोलन के नेत्रत्व की तैयारी का एवं आंदोलन को समाज से जोड़ने के पूर्वाभ्यास का अवसर प्राप्त हुआ। संभवतया साबरमती नदी के किनारे गाँधीजी ने स्वयं के द्वारा अनवरत किए गये अध्यात्मिक प्रयोगों द्वारा स्वयं को उस उँचाई तक पहुँचाया होगा जहाँ ईश्वरीय तत्व को महसूस किया जा सकता है। दूसरी ओर कठोर नैतिक बंधनो तथा स्वानुशासन के द्वारा शरीर और मन को साधने के गंभीर प्रयास किए | यहीं से गाँधी की जन नेता से अधिक एक महात्मा बनने की प्रक्रीया प्रारंभ हुई ।
उनके तापोनिश्ठ जीवन की आँच को साबरमती आश्रम मे सहज महसूस किया जा सकता है। .साबरमती आश्रम मे ऊन्मुक्त उड़ान भरते तोते,घास पर दौड़ती \ दाना चुगती चिड़ियों ,वृक्ष पर निशंक होकर चढ़ती उतरती गिलहरियो से ही संभवतया स्वतंत्रता का पहला स्वाभाविक अनुभव महात्मा गांधी ने महसूस किया होगा। साधक की तरह खड़े हरे भरे व्रक्ष गाँधीजी के अध्यात्मिक अनुभवो के साक्छी रहें हैं। ये वृक्छ आज भी वैसे ही खड़े हैं ।उसी साक्ष भाव के साथ। गाँधी की यादगार चरखे, छड़ी ,घड़ी और उनके निवास को देखकर गांधी के संतत्व को सहज रूप से महसूस किया जा सकता है। यह साबरमती नदी का अविरल प्रवाह गाँधी के पूर्वाग्रहों से मुक्त नैतिकता कि ऊंचाइयों कि पहुँच को बार बार दोहराता हैं।
लो मैं भी गाँधी को एक कहानी बना बैठा. गाँधी कहानी नही वरण हमेशा प्रासंगिक बना रहने वाला एक शाश्वत व्यक्तित्व है| गाँधी अपने आत्मिक बल के कारण जहाँ खड़े होते वह स्थान व्यासपीठ बन जाता, जो बोलते वह नैतिक उपदेश बन जाता।
उनका ओढना,पहनना, उठना, बैठना पुरे देश के लिए अनुकरणीय बन गय़ा। उनकी इसी विशेषता के कारण स्वतंत्रता के राजनीतिक आंदोलन को भी वे ग़ैरपेशेवर और उस समय प्रचलित राजनीतिक तरीकों से अलग ढंग से चला पाए। गाँधी एक ऐसे शक्तिपुंज बन गये थे,जो कई बार कॉंग्रेस पार्टी और आंदोलन के प्रजातांत्रिक ढाँचे के विरोध में भी खड़े दिखाई देते थे । .
क्या पार्टी कि राजनीति के बाहर एक शक्तिपूंज का बनना पार्टी के प्रजातंत्र के लिए ख़तरा भी हो सकता है? हम प्रजातांत्रिक देशो का इतिहास देखे , प्रजातंत्र कभी धनबल,कभी सत्ता ,तो कभी नौकरशाहो के हाथ का तो कभी वोट बैंक के हाथो का खिलोना बन जाता है। . आज हमारे प्रजातंत्र की भी क्या हालत है ? दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र का मुखिया अपनी मजबूरी को खुलेआम स्वीकार करता है । ऐसे समय सत्ता या पार्टी के समानांतर शक्तिपूंज का होना अनिवार्य है । ,परन्तु ऐसा शक्ति पुंज आध्यात्मिक और नैतिक ताक़त से पूर्ण हो.। ठीक गाँधी की तरह । गाँधी आज भी प्रासंगिक है.।