Sunday, March 6, 2022

साबरमती के बहाने

 साबरमती के बहाने 
सफ़र नामा ............
             
मुझे अहमदाबाद  जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ| अमूनन अहमदाबाद में देखने लायक बहुतसे ऐतिहासिक तथा धार्मिक स्थान है परन्तु मैंने यात्रा की शुरुवात में हि तय कर लिया था कि मै साबरमती  आश्रममें पर्याप्त समय  रहूँगा।साबरमती आश्रम में  बिताया गया एक एक पल का अनुभव   मेरे लिए एक अलौकिक स्पंदन   था|
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यद्यपि मेरी गाँधीजी  के राजनीतिक विचारों से कभी भी पूर्ण सहमति  नही रही,या यों कह सकते हैं कि मुझे  राजनेता गाँधी कभी भी बहुत अधिक प्रभावित नहीं कर पाये।परंतु उनकी अध्यात्मिक चेतना एवं नैतिक अनुशासन ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया है।
             
गाँधी भारतीय जनमानस की नब्ज़ को अच्छी तरह पहचानते थे। . वे जानते थे की धर्म के प्रयोग के द्वारा हि समाज को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा जा सकता है।  वे यह भी जानते थे कि भारतीय जनता कठोर नैतिक अनुशासन से पूरित व्यक्ति का ही  नेत्रत्व सहज रूपसे तथा श्रद्धा के साथ  स्वीकार करती है।
           
यह साबरमती आश्रम ही था, जहाँ गाँधी जी को स्वतंत्रता आंदोलन के नेत्रत्व की तैयारी का एवं आंदोलन को  समाज से  जोड़ने के पूर्वाभ्यास का अवसर प्राप्त हुआ। संभवतया साबरमती नदी के किनारे गाँधीजी  ने  स्वयं के  द्वारा  अनवरत किए गये अध्यात्मिक प्रयोगों द्वारा स्वयं को उस उँचाई तक पहुँचाया होगा जहाँ ईश्वरीय तत्व को महसूस किया जा सकता है।  दूसरी   ओर  कठोर नैतिक बंधनो तथा स्वानुशासन  के द्वारा शरीर और  मन  को साधने के गंभीर प्रयास किए | यहीं से गाँधी की जन नेता से अधिक  एक  महात्मा बनने की प्रक्रीया प्रारंभ हुई  
             
उनके तापोनिश्ठ जीवन की आँच को साबरमती आश्रम मे सहज महसूस किया जा सकता है। .साबरमती आश्रम मे ऊन्मुक्त उड़ान भरते तोते,घास पर दौड़ती \ दाना चुगती चिड़ियों  ,वृक्ष  पर निशंक होकर  चढ़ती उतरती गिलहरियो से ही   संभवतया स्वतंत्रता का पहला स्वाभाविक अनुभव महात्मा गांधी ने  महसूस किया होगा। साधक की तरह खड़े हरे भरे व्रक्ष   गाँधीजी के अध्यात्मिक अनुभवो के साक्छी रहें हैं। ये वृक्छ आज भी वैसे ही खड़े हैं ।उसी साक्ष  भाव के साथ।   गाँधी की यादगार चरखे, छड़ी ,घड़ी और उनके  निवास को देखकर गांधी के संतत्व को सहज रूप से   महसूस किया जा सकता है।  यह    साबरमती नदी का अविरल प्रवाह गाँधी के पूर्वाग्रहों से मुक्त नैतिकता कि ऊंचाइयों कि पहुँच   को बार बार दोहराता हैं।
                 
लो मैं भी गाँधी को एक कहानी बना बैठा. गाँधी कहानी नही वरण हमेशा प्रासंगिक बना रहने वाला  एक शाश्वत व्यक्तित्व है| गाँधी अपने आत्मिक बल के कारण जहाँ खड़े होते वह स्थान  व्यासपीठ बन जाता, जो बोलते   वह नैतिक उपदेश बन जाता।
       
उनका ओढना,पहनना, उठना, बैठना पुरे देश के लिए  अनुकरणीय  बन गय़ा।  उनकी इसी विशेषता के कारण स्वतंत्रता के राजनीतिक आंदोलन को भी वे ग़ैरपेशेवर और उस समय प्रचलित राजनीतिक तरीकों से अलग  ढंग से चला पाए।  गाँधी एक ऐसे शक्तिपुंज बन गये थे,जो कई बार कॉंग्रेस पार्टी और आंदोलन के प्रजातांत्रिक ढाँचे के विरोध में भी खड़े दिखाई देते थे । .
         
क्या पार्टी कि राजनीति के बाहर एक  शक्तिपूंज का बनना पार्टी  के प्रजातंत्र के लिए ख़तरा भी हो सकता है? हम प्रजातांत्रिक देशो का इतिहास देखे , प्रजातंत्र कभी धनबल,कभी सत्ता ,तो कभी नौकरशाहो के हाथ का तो कभी वोट बैंक के हाथो का खिलोना बन जाता है। . आज हमारे प्रजातंत्र की भी क्या हालत है ? दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र का मुखिया अपनी मजबूरी को खुलेआम स्वीकार करता है ।  ऐसे समय सत्ता या पार्टी  के समानांतर शक्तिपूंज का होना अनिवार्य  है । ,परन्तु ऐसा शक्ति पुंज आध्यात्मिक और नैतिक ताक़त से पूर्ण हो.। ठीक गाँधी की तरह ।  गाँधी आज भी प्रासंगिक है.।


Thursday, May 8, 2014

जिदगी बढ़ती रही

 ……… बचपन वापस मिल जाता                                                            जिंदगी अपनी राह चलती रही , बचपन का हाथ थामे बढ़ती रही |                                  कभी टेढ़े मेढे रास्तों पर ,संघर्ष का आगाज करती |                                             कभी सरल सीधे रास्ते पर मौज मस्ती से चलती |                                                  जिंदगी अपने राह चलती रही |                                                               कितने कठिन  पड़ाओ से गुजर गयी, कितने हादसों से बच गयी |                                                                                                                                                                                  बादल भी गरज कर चुप हो गए | बार बार गरम हवा से झुलसती,                                  तो कभी चाँद की रोशनी में हंसती ,जिंदगी अपने राह चलती रही |                                     बीता सुख दुख कुछ भी याद न रहा |पर गुजरा बचपन भूल न पाया|                                जिंदगी अपनी राह चलती रही ,बचपन की यादें  थामे आगे बढती रही |                                 वह भरी दुपहर  में अमिया चुराना , बरसात में  कीचड़ में फिसलना ,                                 अन्नी भी पास हो तो  रुवाब दिखाना,नयी गंजी भी मिले तो पहनकर इठलाना,                           माँ की आंख बचाकर दूर निकल जाना , दौड़ते दौड़ते घुटनों के बल गिरना,                                    घुटने से निकलता खून देख डरना , दर्द से अधिक माँ की डांट से घबराना   ,                          घर पहुँचते ही माँ की  डाँट खाना, घुटने की चोट देंख माँ का उर से लगाना,                           हम दोनों के आँसू से चोट का  धुलना , अब बाहर  न जाने की कसम खाना,                     और बार बार माँ की आँख चुरा कर ,कसम तोड़ ,फिर दूर खेलने निकल जाना |                            जिंदगी की  भागम भाग  में सब कुछ छूट गया ,पर बचपन साथ निभाता रहा |                  इसीलिए तो जिन्दगी आगे बढती रही, बचपन का अतीत साथ ले चलती रही ||                        भरी धुप में बैठ रेत का घर बनाना ,और अपने ही हाथो तोड़कर खिलखिलाना,                        काठी का घोडा ,काठी की बस ,और काठी का जहाज बना दुनिया की सैर करना ,                     कितना सहज था  बचपन ,सबसे ऊँची   मुंडेर पर बैठ ,खुद को राजा समझना ,                        इसी सरलता को सहेजे जिंदगी अतीत को साथ लेकर अपनी राह चलती रही ,                        दीदी की  मेहंदी को बिगाड़ कर भागना और माँ के पल्लू में छिप कर मुह चिढाना ,                माँ से भैया की झूठी शिकायत करना, भैय्या को डांट पड़े तो खुद का ही रो पड़ना ,                                                   स्कुल से आकर नवाब की तरह माँ के सामने बड़ी अकड़ से खड़े हो जाना ,                                माँ का थके बदन पर प्यार से हाथ घुमाना, गोदी में लेकर खाना खिलाना ,                             था तो सोचा करता ,जल्दी से  कब पिताजी की तरह बड़ा हो जाता ,                                                पर अब सोचता हूँ काश! मेरा बचपन मुझे वापस मिल जाता,वापस मिल जाता |

                                                    भास्कर 

Tuesday, May 6, 2014

Friday, June 24, 2011

जहाँ तक नागर सभाओ का सवाल है

सिविल सोसायटी
 मीडीया अन्ना हज़ारे एवं उनके कुनबे को पूरे देश की सिविल सोसायटी का प्रतिनिधि बता रहा है | इसपरगंभीरता से विचार करने का समय  गया है | सिविल सोसायटी अर्थात नागर समाज , समाज का वह अंग है  जो समाज मे विचारो का प्रवर्तन करता हैसमाज उन विचारो को स्वीकार या अस्वीकार करता हैयदिविचार जनसामान्य को स्वीकार्य हों तो तदनुसार हलचल पैदा होती हैपर अन्ना ने नागरसमाज को हि जनमान लिया | यही मीडिया और सरकार ने भी किया | भ्रष्टाचार के विरुध्द आवाज़ उठनी चाहिए आंदोलन भीहोना चाहिए | आंदोलन की सफलता इस बात पर निर्भर है कि क्या नागर समाज का विचार जनता ने स्वीकारलिया है , या जनांदोलन होने का यह आभास मात्र है | नागर समाज के तथाकथित प्रतिनिधि संपूर्ण न्यायपालिका एवं कार्यपालिका को लोकपाल के दायरे मे लाकर लोकपाल को जिस प्रकार एक निरंकुश संस्था बनानाचाहते है,  वह तत्कालिक रूप से योग्य विचार हो सकता है , परंतु दूरगामी दृष्टि से यह निरंकुश्ता नई गंभीरसमस्या की जननी तो नही बन जाएगी ?      
  हमारा देश आज आर्थिक शक्ति बनने  की ओर अग्रसर है | परंतु यही बात दुनिया की शक्तिया पचा नही पारही हैऐसे समय मे सरकार कोविरोधिदलो को तथा समाज प्रवर्तको संयम के साथ कदम उठाने की ज़रूरतहैकिसी भी पक्ष के द्वारा जल्द बाजी मे उठाया गया कदम देश के लिए ख़तरनाक हो सकता है | सरकार नेअब भी जनभावनाओं का सही आंकलन कर बड़े भ्रष्टाचारो तथा विदेशों मे जमा धन के विरूद्ध ईमानदारी सेएवं समय्बद्ध कार्यवाही नही की तो जनभावनाओंका  रूख़ कौनकबऔर कहाँ मोडेगा कहना कठिन है |
जहाँ तक नागर सभाओ का सवाल है ,दिल्ली में भ्रष्टाचार की लड़ाई को पूरी ताक़त के साथ लड़ना ज़रूरी है ,परइसकी अधिक सार्थकता आंदोलन को नीचे स्तर तक ले जाने मे है | जहाँ सामान्य व्यक्तिपल हर पल ज़मीनतक व्याप्तहा भ्रष्टाचार संस्कृति दो दो हाथ कर रहा   है | नागर सभा कोएक लंबी लड़ाई लड़नी हैजिसकारास्ता गाँव के खेत खलिहान से होकर जाताहै|

Friday, June 24, 2011

जहाँ तक नागर सभाओ का सवाल है

सिविल सोसायटी
 मीडीया अन्ना हज़ारे एवं उनके कुनबे को पूरे देश की सिविल सोसायटी का प्रतिनिधि बता रहा है | इसपर गंभीरता से विचार करने का समय गया है | सिविल सोसायटी अर्थात नागर समाज , समाज का वह अंग है  जो समाज मे विचारो का प्रवर्तन करता है| समाज उन विचारो को स्वीकार या अस्वीकार करता है| यदि विचार जनसामान्य को स्वीकार्य हों तो तदनुसार हलचल पैदा होती है| पर अन्ना ने नागरसमाज को हि जन मान लिया | यही मीडिया और सरकार ने भी किया | भ्रष्टाचार के विरुध्द आवाज़ उठनी चाहिए आंदोलन भी होना चाहिए | आंदोलन की सफलता इस बात पर निर्भर है कि क्या नागर समाज का विचार जनता ने स्वीकार लिया है , या जनांदोलन होने का यह आभास मात्र है | नागर समाज के तथाकथित प्रतिनिधि संपूर्ण न्याय पालिका एवं कार्यपालिका को लोकपाल के दायरे मे लाकर लोकपाल को जिस प्रकार एक निरंकुश संस्था बनाना चाहते है,  वह तत्कालिक रूप से योग्य विचार हो सकता है , परंतु दूरगामी दृष्टि से यह निरंकुश्ता नई गंभीर समस्या की जननी तो नही बन जाएगी ?      
  हमारा देश आज आर्थिक शक्ति बनने  की ओर अग्रसर है | परंतु यही बात दुनिया की शक्तिया पचा नही पा रही है| ऐसे समय मे सरकार को, विरोधिदलो को तथा समाज प्रवर्तको संयम के साथ कदम उठाने की ज़रूरत है| किसी भी पक्ष के द्वारा जल्द बाजी मे उठाया गया कदम देश के लिए ख़तरनाक हो सकता है | सरकार ने अब भी जनभावनाओं का सही आंकलन कर बड़े भ्रष्टाचारो तथा विदेशों मे जमा धन के विरूद्ध ईमानदारी से एवं समय्बद्ध कार्यवाही नही की तो जनभावनाओंका  रूख़ कौन, कबऔर कहाँ मोडेगा कहना कठिन है |
जहाँ तक नागर सभाओ का सवाल है ,दिल्ली में भ्रष्टाचार की लड़ाई को पूरी ताक़त के साथ लड़ना ज़रूरी है ,पर इसकी अधिक सार्थकता आंदोलन को नीचे स्तर तक ले जाने मे है | जहाँ सामान्य व्यक्तिपल हर पल ज़मीन तक व्याप्तहा भ्रष्टाचार संस्कृति दो दो हाथ कर रहा   है | नागर सभा कोएक लंबी लड़ाई लड़नी है| जिसका रास्ता गाँव के खेत खलिहान से होकर जाताहै|